
मेरे वजूद ने मुझे नींद से जगाया
और मुझसे पूछा एक सवाल,
करती रही तुम सबका ख्याल,
मेरा भी कर दो ज़रा आज हिसाब।
बहुत सोचा पर जवाब न सूझा
फिर तुनक कर बोला मैंने,
हो तो तुम मेरा ही हिस्सा,
फिर क्यों मांगो मुझसे हिसाब?
मेरा जीवन एक खुली किताब,
सादगी से जिया इसे मैंने,
अपने वजूद को तो बिल्कुल न छुआ है मैंने।
थाम कर चली सदा रिश्तों की डोर,
इन सब के सामने नही तेरा कोई ओर छोर।
फिर क्यों कर तुमको मैं देखूँ,
और क्यों कर तुमको मैं समझूँ।
फिर से बोला मेरा वजूद,
नजर अंदाज़ न करना मुझको
चाहे मैं हूँ तुम्हारे ही भीतर
मेरी अवहेलना कर के तुम
कर बैठोगी अन्याय
बाकी सभी रिश्तों से भी
मैं तो स्वाभिमान तुम्हारा,
क्या जी पाओगी मुझ बिन।
खुद को समझो,वजूद को समझो
नहीं तो खो जाओगी एक दिन
इस दुनिया की भीड़ भाड़ में
न फिर ढूँढ पाओगी खुद को,
स्वार्थ भरी इस दुनिया में।
समझ जाओ अब,
संभल जाओ अब
ढूँढ लाओ अब अपना वजूद।
मेरा वजूद माँग रहा हिसाब।
मेरा वजूद माँग रहा हिसाब।
अभिव्यक्ति – सोच का सैलाब


