
सरिता सेठी
ऐ जिन्दगी
बहुत करीब से देखा है तुझे,
तेरा इतराना तेरा इठलाना,
तेरा पल पल नाराज़ हो जाना,
तेरा रूठना और तेरा ही मनाना,
कभी पतझड़ की तरह चरमराना,
तो कभी वसन्त सा महकना।o
तेरे सभी रूपों से हो गए वाकिफ़,
तेरे सभी रंगों से सरोबार।

सरिता सेठी
ऐ जिन्दगी
बहुत करीब से देखा है तुझे,
तेरा इतराना तेरा इठलाना,
तेरा पल पल नाराज़ हो जाना,
तेरा रूठना और तेरा ही मनाना,
कभी पतझड़ की तरह चरमराना,
तो कभी वसन्त सा महकना।o
तेरे सभी रूपों से हो गए वाकिफ़,
तेरे सभी रंगों से सरोबार।

आओ मिलकर करें ये संकल्प,
अपने मन के भीतर के रावण का करें अन्त।
हारेंगी सभी बुराइयाँ तभी,
होगा आगाज़ एक नई सुबह का
जिसका करते रहे सदा इंतज़ार
फिर न किसी की विजय होगी,
न होगी किसी की हार।
हर दिन ही होगा एक त्योहार।
-सरिता सेठी
जीवन है एक पहेली सा,
एक अनसुलझी पहेली सा,
सारा जीवन लगा दांव पर,
इस पहेली को सुलझाने में,
सारे जग के नाते निभाने में,
न जाने फिर क्यों न सुलझे,
ये अनसुलझी पहेली सा,
हर दौर से जीवन गुजरे,
अच्छा और बुरा भी गुजरे,
दिन रात एक किए बहुतेरे,
फिर भी न सुलझे ये पहेली,
अब तो लगे ये सखी सहेली,
क्यों न इसके साथ ही जी लें
इस उधङन को समझ से सी लें
फिर न लगेगा जीवन पहेली,
बन जाएगा सखी सहेली,
सारे दर्द अब सांझा होंगे,
सारे राज़ उजागर होंगे,
अनसुलझी फिर रहे न पहेली,
जीवन बन जाए जब सखी सहेली,
आओ इसे अब प्यार से भर दें,
च॔चलता से दामन भर दें,
तब न रहेगा जीवन पहेली
सुलझ जाएगी सभी पहेली
-सरिता सेठी
नीलू बहुत ही अल्हड़ लङकी थी। हमेशा मस्त रहने वाली। एक भरे पूरे परिवार में रहती थी। एकदम मस्त और बिंदास। भाई बहनों में सबसे छोटी होने के कारण सबकी लाडली बन गई थी। अपनी माँ को हर पल काम करते देखती। माँ उसे समय समय पर सीख देती रहती। वो अल्हड़ लङकी कुछ सुनती कुछ अनसुना कर देती। समय पंख लगा कर उड़ता रहा।समय बदला, अब नीलू खुद भी दो बच्चों की माँ है। माँ ने भी गृहस्थी चलाने में पूरा सहयोग दिया। आज माँ साथ नहीं है, परन्तु माँ की हर बात उसे याद है। माँ की कही अनकही सभी बातें याद हैं।मजे की बात तो यह है कि माँ की जो बातें बेकार और बेमानी लगती थी, अब वो सब अर्थपूर्ण हो गई हैं। माँ की जो आदतें नापसंद थी, आज वही आदतें अपने में महसूस करने लगी है। आज हर बात पर माँ का ही किस्सा याद आता है। जिन आदतों पर नाक चिड़ाती थी, न जाने कब उसमें खुद में ही उजागर होने लगी। अब उसे ये अहसास हो गया है कि वो तो बिल्कुल अपनी माँ जैसी हो गई है।
क्या आपको भी ऐसा महसूस होता है?
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इस कविता की रचना आज से लगभग पच्चीस वर्ष पूर्व की गई थी।अपने जीवन साथी को
अपने नाम के अनुरूप ही अपनी कल्पना में “सागर” नाम दिया था।
– सरिता सेठी
अगर मैं सरिता हूँ
तो तुम एक सागर हो
सागर से मिलकर
सरिता का आस्तित्व समाप्त हो जाता है
लेकिन मैं चाहती हूँ कि
इस सरिता का सागर ऐसा हो
जो कि सरिता का आस्तित्व मिटने न दे
उसकी एक अलग पहचान बनाए रखे
तुम सरिता को उसके वास्तविक रूप में ही ग्रहण कर लो
तो सरिता भी सागर में पूर्णतया विलीन हो जाएगी
फिर कोई नहीं जान पाएगा कि
अशुद्धिया सरिता की है या सागर की
दोनो मिलकर
एक दूसरे की अशुद्धियों को दूर कर
एक ऐसा वातावरण तैयार करें कि
इस सरिता सागर का मिलन
दुनियां में एक मिसाल बन जाए।
– सरिता सेठी
बहुत आसान तो नहीं था ये सफर ,पर
तुम्हारे साथ मुश्किल भी नहीं लगा ये सफर,
मेरी हर परेशानी का निकाला हल,
मेरी मुश्किल को दूर किया तुमने हर पल,
पग पग पर सदा दिया मेरा साथ,
बिना जाने ही मदद के लिए बढाया सदा हाथ,
मेरे जीवन के सारे कष्ट हरे,
लेकिन तुम सदा ही रहे मेरी समझ से परे,
तुम्हें समझने का जितना भी किया यत्न,
बेकार ही रहे मेरे सारे प्रयत्न,
हमारी जीवन की माला में जुड़ी एक नई कड़ी,
जब हमारे जीवन में आई हमारी नन्ही परी,
हम सब के जीवन को इसने रोशन किया,
सभी की लाडली बन गई छोटी सी रिया,
हमारी माला में जुङा एक नया मनका,
जिसे पाकर तृप्त हुआ तन मन सबका,
“उत्सव ” को पाकर जीवन भी हुआ उत्सव सा,
जीवन भी लगने लगा खुशियों से भरा सा,
छोटी छोटी खुशियों को जीते चले,
एक दूसरे के साथ आगे बढ़ते चले,
प्रोफैशनल कैरियर में भी सदा दिया मेरा साथ,
आत्मविश्वास जगा कर हर पल दिया हाथ में हाथ,
मैं जीवन की राह पर आगे बढ़ती रही,
हर पल तुम्हारे साथ को भी महसूस करती रही,
जीवन में हर कदम पर मेरा साथ निभाया,
मैं हूँ कुछ खास, ये अहसास तुमने सदा कराया,
मेरी छोटी छोटी खुशियों को पूरा करने का किया सदा प्रयास,
मेरी सिंगिंग और मेरे लेखन को बताया सदा खास,
ऐसा नहीं है कि हमारे बीच नहीं हुआ कोई टकराव, पर
तुम्हारी केयरिंग हैबिट भर देती है सारे घाव,
विचारों का अन्तर तो सदा ही पाया,
जिन्दगी को अपने तरीके से जीने का ढंग भी सिखाया,
कभी कभी कहती हूँ कि पंडित ने राशि गलत मिला दी,
दो अलग विचारों वाले व्यक्तियों की शादी करवा दी।
घर में टिक कर रहना तुम्हें खलता है ऐसे,
एक म्यान में दो तलवारें न टिकती हों जैसे।
परन्तु फिर भी तुम्हारे रूप में एक आदर्श जीवन साथी को है पाया,
सरिता-सागर के मिलन को सार्थक होते हुए पाया।
मेरी कविता “सागर ” के आदर्श पात्र हो तुम,
सरिता के जीवन को अपने आप में समेटने वाले सागर हो तुम।
कठिन पथ पर सदा मेरा साथ देते रहना,
मेरे जीवन को यूँ ही सदा महकाते रहना।
-सरिता सेठी
कुछ सोचने से पहले भी कुछ सोचना पड़ता है।
कुछ लिखने से पहले भी कुछ सोचना पड़ता है।
कहने को कितनी आधारहीन है ये बात,
परन्तु बहुत गहराई से सोचने वाली है ये बात।
क्या सदा हम बोल पाते हैं बिना सोचे,
क्या अपने मन की उथल पुथल को व्यक्त कर पाते हैं बिना सोचे,
हाँ, बिल्कुल कर सकते हैं क्योंकि,
हमें मिला है अधिकार अभिव्यक्ति का,
हमें मिली है आजादी, भावनाओं को व्यक्त करने की,
तो क्या हुआ जो हमें सोचना पड़ता है कुछ कहने से पहले,
तो क्या हुआ कथन का प्रभाव सोचना पड़ता है कुछ कहने से पहले,
तो क्या हुआ जो सभी का ख्याल कर चुप रहना पड़ता है कुछ कहने से पहले,
तो क्या हुआ जो अपनी ही आवाज का गला दबाना पड़ता है कुछ कहने से पहले,
फिर भी तुम कहते हो कि अभिव्यक्ति की आजादी है,
विचारों को भावों को प्रकट करने की आजादी है,
फिर तो बहुत ही दम घोंटने वाली है ये आजादी,
धुएं से भरे कमरे में खुल कर साँस लेने वाली है ये आजादी,
नहीं चाहिए ऐसी आजादी,
जिसमें एहसास भी न हो आजादी का,
जो आजादी तुम्हें अनदेखी जंजीरों में जकड़े,
सारी जिंदगी केवल झूठे दिखावो में निकले,
कि तुम आजाद हो,
लेकिन यह क्या,
ये सोचने का तो अधिकार ही नहीं है मुझे,
समाज ने औरत को ये अधिकार तो दिए ही नहीं,
लेखन का अधिकार तो छीना है समाज से,
क्या पता ये लेखन डायरी तक ही सीमित होगा या
इसे भी अधिकार मिलेगा प्रकाशन का,
क्योंकि मैं तो भूल ही गई थी कि
कुछ लिखने से पहले भी कुछ सोचना पड़ता है।
लिखने के बाद सोचती हूँ कि
कि कहीं मेरी पंक्तियाँ ह्रदय छलनी न कर दे
समाज के ठेकेदारों का,
मेरा यह विचार मजबूर न कर दे उन्हें,
मुझे कटघरे में खड़ा करने को,
तभी तो कहती हूँ कि
कुछ लिखने से पहले भी कुछ सोचना पड़ता है।
– सरिता सेठी
बचपन एक खाली बर्तन सा,
मध्यम आंच पर इसे तपाया,
फिर डाला इसमें स्नेह का घी,
प्रेम का इसमें तङका लगाया,
इस तङके को खूब पकाया,
आचार व्यवहार का डाला मसाला,
धीमी आंच पर इसे पकाया,
इसमें डाली कर्तव्यो की तरकारी
कर्तव्यो को भी खूब पकाया,
धीरे धीरे कर्तव्यो को,
स्वार्थ की कलछी से भी हिलाया,
कर्तव्यो को सहेजने की खातिर
अधिकारों का भी छींटा लगाया,
फिर कर्तव्यो को और पकाया,
सारी उलझनों को आचरण के
ढक्कन से ढक कर,
खूब पकाया खूब पकाया,
जीवन का एक अहम् हिस्सा,
खर्च किया इस तरकारी को पकाने में,
लो बन कर तैयार हो गई,
सुखी और खुशहाल रेसिपी।
– सरिता सेठी
जी चाहता है छू लूं आसमान
उङ कर देख लूं सारा जहान
रंग बिरंगी तितलियों के संग उङू
कलरव करते पंछियों के संग उङू
पेड़ो की शाखों पर उठती फिरूँ
हर पल दुनिया का बदलता रूप देखूं
देखूं कि सूरज कैसे उगता है
देखूं कि दिन भर चांद क्या करता है
इस दुनियां में कोई भी प्राणी कष्ट न पाए
सब हँसते खिलखिलाते रहे, कुछ ऐसा हो जाए
न हो घर की फिक्र न बाहर की चिंता
सब मिल कर रहें बस यही एक तमन्ना
न जान पाऊँ कि किसके मन में है क्या
सबके साथ एक सा व्यवहार करने की हो कला
जीवन के हर रूप को पहचानने का ख्वाब नहीं
सब सुखी स्वस्थ और साथ रहें, इसके अतिरिक्त कोई चाह नहीं।

ईश्वर के प्रत्येक कार्य में कुछ अच्छा छिपा होता है। इस लाकॅडाउन में वही ढूंढने का प्रयास कर रही हूँ ।
– सरिता सेठी

नदियाँ निर्मल हो गई हैं,
आसमान भी नीला सा ।
पंछी कलरव करते दिन भर ,
मस्त गगन में विचरण करते।
ऐसा मस्त समां हो गया है ,
ट्रैफिक जाम छूमंतर हो गया है ।
कोई सुबह को देर से उठता ,
कोई रात को जल्दी सोता।
न कोई आफिस से लेट आता,
न कोई बार बार फोन लगाता।
पति देव कम्पयूटर के साथ ,
बच्चे करें अपने कार्य समाप्त ।
मुझे भी मौका मिल गया है ,
डायरी पैन को छू लूं आज।
लाकॅडाउन खुल जाए जिस दिन ,
फिर से होंगे वही नीरस दिन ।
सुबह को जल्दी उठना होगा ,
रात न देर तक जगना होगा ।
फिर सुनेगी वो अलार्म की कर्कश धुन,
न कर पाऊंगी सपनो की उधेङ बुन।
काश कुछ ऐसा हो जाए ,
बीच का रास्ता ही निकल आए।
अपने कार्य का वहन करने के साथ ,
डायरी पैन का भी न छूटे साथ ।
अपने मन के सभी उदगार कर पाऊ वयक्त ,
चाहे जिन्दगी कितनी भी रहे वयस्त।