-सरिता सेठी
कुछ सोचने से पहले भी कुछ सोचना पड़ता है।
कुछ लिखने से पहले भी कुछ सोचना पड़ता है।
कहने को कितनी आधारहीन है ये बात,
परन्तु बहुत गहराई से सोचने वाली है ये बात।
क्या सदा हम बोल पाते हैं बिना सोचे,
क्या अपने मन की उथल पुथल को व्यक्त कर पाते हैं बिना सोचे,
हाँ, बिल्कुल कर सकते हैं क्योंकि,
हमें मिला है अधिकार अभिव्यक्ति का,
हमें मिली है आजादी, भावनाओं को व्यक्त करने की,
तो क्या हुआ जो हमें सोचना पड़ता है कुछ कहने से पहले,
तो क्या हुआ कथन का प्रभाव सोचना पड़ता है कुछ कहने से पहले,
तो क्या हुआ जो सभी का ख्याल कर चुप रहना पड़ता है कुछ कहने से पहले,
तो क्या हुआ जो अपनी ही आवाज का गला दबाना पड़ता है कुछ कहने से पहले,
फिर भी तुम कहते हो कि अभिव्यक्ति की आजादी है,
विचारों को भावों को प्रकट करने की आजादी है,
फिर तो बहुत ही दम घोंटने वाली है ये आजादी,
धुएं से भरे कमरे में खुल कर साँस लेने वाली है ये आजादी,
नहीं चाहिए ऐसी आजादी,
जिसमें एहसास भी न हो आजादी का,
जो आजादी तुम्हें अनदेखी जंजीरों में जकड़े,
सारी जिंदगी केवल झूठे दिखावो में निकले,
कि तुम आजाद हो,
लेकिन यह क्या,
ये सोचने का तो अधिकार ही नहीं है मुझे,
समाज ने औरत को ये अधिकार तो दिए ही नहीं,
लेखन का अधिकार तो छीना है समाज से,
क्या पता ये लेखन डायरी तक ही सीमित होगा या
इसे भी अधिकार मिलेगा प्रकाशन का,
क्योंकि मैं तो भूल ही गई थी कि
कुछ लिखने से पहले भी कुछ सोचना पड़ता है।
लिखने के बाद सोचती हूँ कि
कि कहीं मेरी पंक्तियाँ ह्रदय छलनी न कर दे
समाज के ठेकेदारों का,
मेरा यह विचार मजबूर न कर दे उन्हें,
मुझे कटघरे में खड़ा करने को,
तभी तो कहती हूँ कि
कुछ लिखने से पहले भी कुछ सोचना पड़ता है।