मेरी बेटी, मेरी माॅडर्न माँ

सरिता सेठी

जी हाँ, मेरे पास है एक मॉडर्न माँ।
जिसे पंख दिए हैं मैंने,
वो मुझे उड़ना सिखा रही है।
सूट साड़ी के साथ साथ ,
अब जींस भी पहना रही है।
शापिंग करती थी बाज़ार से,
अनलाइन शापिंग सिखा रही है।
परिस्थितियां सुलझाती थी अपने ढंग से,
उन्हें सुलझाने के माॅडर्न तरीके सिखा रही है।
लेखन कही छूट गया था पीछे
उस शौक को फिर से जगा रही है।
जिसे पंख दिए हैं मैंने,
वो मुझे उड़ना सिखा रही है।

हिन्दी और माँ

सरिता सेठी

हिन्दी की स्थिति बिल्कुल माँ जैसी है। माँ जिस प्रकार बच्चे को पाल पोस कर बढ़ाया करती है। ठीक उसी प्रकार हिन्दी भाषा ने भी हम सब का पोषण किया है। बच्चा बड़ा होकर अंग्रेजी विद्यालय जाता है और अपनी मातृभाषा से नज़रें चुराने लगता है। बड़ा होने पर एक दिन अंग्रेजी दुल्हन घर ले आता है। जैसे माँ विदेशी बहु को अपना लेती है उसी प्रकार हिन्दी भाषा भी अंग्रेजी के शब्दों को आत्मसात कर लेती है। बेटा धीरे धीरे अंग्रेजी दुल्हन में रम जाता है और माँ को भूलने लगता है। अब तो माँ की उपस्थिति केवल तीज-त्यौहार पर ही होती है। हमारी मातृभाषा हिन्दी का हाल भी माँ जैसा है। हम केवल विशेष अवसरों पर ही हिन्दी को याद करते हैं। परन्तु माँ तो माँ होती है। हम कितना भी उसे तिरस्कृत करें वो अपना प्यार और वात्सल्य सदा अपने बच्चों पर ही लुटाती है।

आओ आज ये प्रण लें कि हिन्दी और माँ दोनों का सम्मान करेंगे।दोनो में से किसी को भी अपमानित नहीं होने देंगे।

दिल से करें हिन्दी का सम्मान

“दिल से करें हिन्दी का सम्मान”पढ़ना जारी रखें

अनसुलझी पहेली

-सरिता सेठी

जीवन है एक पहेली सा,
एक अनसुलझी पहेली सा,
सारा जीवन लगा दांव पर,
इस पहेली को सुलझाने में,
सारे जग के नाते निभाने में,
न जाने फिर क्यों न सुलझे,
ये अनसुलझी पहेली सा,
हर दौर से जीवन गुजरे,
अच्छा और बुरा भी गुजरे,
दिन रात एक किए बहुतेरे,
फिर भी न सुलझे ये पहेली,
अब तो लगे ये सखी सहेली,
क्यों न इसके साथ ही जी लें
इस उधङन को समझ से सी लें
फिर न लगेगा जीवन पहेली,
बन जाएगा सखी सहेली,
सारे दर्द अब सांझा होंगे,
सारे राज़ उजागर होंगे,
अनसुलझी फिर रहे न पहेली,
जीवन बन जाए जब सखी सहेली,
आओ इसे अब प्यार से भर दें,
च॔चलता से दामन भर दें,
तब न रहेगा जीवन पहेली
सुलझ जाएगी सभी पहेली

माँ जैसी हो गई हूँ

-सरिता सेठी

नीलू बहुत ही अल्हड़ लङकी थी। हमेशा मस्त रहने वाली। एक भरे पूरे परिवार में रहती थी। एकदम मस्त और बिंदास। भाई बहनों में सबसे छोटी होने के कारण सबकी लाडली बन गई थी। अपनी माँ को हर पल काम करते देखती। माँ उसे समय समय पर सीख देती रहती। वो अल्हड़ लङकी कुछ सुनती कुछ अनसुना कर देती। समय पंख लगा कर उड़ता रहा।समय बदला, अब नीलू खुद भी दो बच्चों की माँ है। माँ ने भी गृहस्थी चलाने में पूरा सहयोग दिया। आज माँ साथ नहीं है, परन्तु माँ की हर बात उसे याद है। माँ की कही अनकही सभी बातें याद हैं।मजे की बात तो यह है कि माँ की जो बातें बेकार और बेमानी लगती थी, अब वो सब अर्थपूर्ण हो गई हैं। माँ की जो आदतें नापसंद थी, आज वही आदतें अपने में महसूस करने लगी है। आज हर बात पर माँ का ही किस्सा याद आता है। जिन आदतों पर नाक चिड़ाती थी, न जाने कब उसमें खुद में ही उजागर होने लगी। अब उसे ये अहसास हो गया है कि वो तो बिल्कुल अपनी माँ जैसी हो गई है।
क्या आपको भी ऐसा महसूस होता है?
कमेंट बाक्स में जरूर लिखें

कुछ लिखने से पहले भी कुछ सोचना पड़ता है

-सरिता सेठी

कुछ सोचने से पहले भी कुछ सोचना पड़ता है।
कुछ लिखने से पहले भी कुछ सोचना पड़ता है।
कहने को कितनी आधारहीन है ये बात,
परन्तु बहुत गहराई से सोचने वाली है ये बात।
क्या सदा हम बोल पाते हैं बिना सोचे,
क्या अपने मन की उथल पुथल को व्यक्त कर पाते हैं बिना सोचे,
हाँ, बिल्कुल कर सकते हैं क्योंकि,
हमें मिला है अधिकार अभिव्यक्ति का,
हमें मिली है आजादी, भावनाओं को व्यक्त करने की,
तो क्या हुआ जो हमें सोचना पड़ता है कुछ कहने से पहले,
तो क्या हुआ कथन का प्रभाव सोचना पड़ता है कुछ कहने से पहले,
तो क्या हुआ जो सभी का ख्याल कर चुप रहना पड़ता है कुछ कहने से पहले,
तो क्या हुआ जो अपनी ही आवाज का गला दबाना पड़ता है कुछ कहने से पहले,
फिर भी तुम कहते हो कि अभिव्यक्ति की आजादी है,
विचारों को भावों को प्रकट करने की आजादी है,
फिर तो बहुत ही दम घोंटने वाली है ये आजादी,
धुएं से भरे कमरे में खुल कर साँस लेने वाली है ये आजादी,
नहीं चाहिए ऐसी आजादी,
जिसमें एहसास भी न हो आजादी का,
जो आजादी तुम्हें अनदेखी जंजीरों में जकड़े,
सारी जिंदगी केवल झूठे दिखावो में निकले,
कि तुम आजाद हो,
लेकिन यह क्या,
ये सोचने का तो अधिकार ही नहीं है मुझे,
समाज ने औरत को ये अधिकार तो दिए ही नहीं,
लेखन का अधिकार तो छीना है समाज से,
क्या पता ये लेखन डायरी तक ही सीमित होगा या
इसे भी अधिकार मिलेगा प्रकाशन का,
क्योंकि मैं तो भूल ही गई थी कि
कुछ लिखने से पहले भी कुछ सोचना पड़ता है।
लिखने के बाद सोचती हूँ कि
कि कहीं मेरी पंक्तियाँ ह्रदय छलनी न कर दे
समाज के ठेकेदारों का,
मेरा यह विचार मजबूर न कर दे उन्हें,
मुझे कटघरे में खड़ा करने को,
तभी तो कहती हूँ कि
कुछ लिखने से पहले भी कुछ सोचना पड़ता है।



Design a site like this with WordPress.com
प्रारंभ करें