सागर

इस कविता की रचना आज से लगभग पच्चीस वर्ष पूर्व की गई थी।अपने जीवन साथी को
अपने नाम के अनुरूप ही अपनी कल्पना में “सागर” नाम दिया था।

– सरिता सेठी

अगर मैं सरिता हूँ
तो तुम एक सागर हो
सागर से मिलकर
सरिता का आस्तित्व समाप्त हो जाता है
लेकिन मैं चाहती हूँ कि
इस सरिता का सागर ऐसा हो
जो कि सरिता का आस्तित्व मिटने न दे
उसकी एक अलग पहचान बनाए रखे
तुम सरिता को उसके वास्तविक रूप में ही ग्रहण कर लो
तो सरिता भी सागर में पूर्णतया विलीन हो जाएगी
फिर कोई नहीं जान पाएगा कि
अशुद्धिया सरिता की है या सागर की
दोनो मिलकर
एक दूसरे की अशुद्धियों को दूर कर
एक ऐसा वातावरण तैयार करें कि
इस सरिता सागर का मिलन
दुनियां में एक मिसाल बन जाए।

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