
सरिता सेठी
एक दिन बैठ कर सोचा मैंने
क्या कुछ पाया ‘मैं ‘को खो कर,
घर पाया, परिवार भी पाया,
आदर और सम्मान भी पाया।
इतना सब कुछ मैंने पाया,
फिर क्यों ये प्रश्न दिल ने उठाया।
भागता रहा जीवन रेल की भाँति,
सीधी और सपाट पटरी पर।
उम्र का हर स्टेशन आया,
पर ‘मैं ‘तो कहीं भी चढ़ न पाया।
निकल गए अब बहुत से स्टेशन,
‘मैं ‘ तो कहीं भी नज़र न आया।
कैसे अब पहचानू ‘मैं ‘को,
आँखो पर भी चश्मा चढ़ आया।
ठान लिया है अब तो मैंने,
इस स्टेशन पर न चूकूंगी,
‘ मैं ‘को भी मैं साथ में लूंगी।
आखिर ये आस्तित्व है मेरा,
छोड़ दूं कैसे वजूद ही मेरा।
घर और परिवार का थामे हाथ,
‘मैं ‘ को भी ले चलूंगी साथ।
