
ऐसा कई बार हुआ है,
अपनी ही वाणी को विराम दिया है।
रिश्तों को सहेजने की खातिर,
खामोशी को भी इम्तिहान दिया है।
मन में दबा कर मन के उदगारों को,
सहनशीलता का ईनाम लिया है।
दबती रही मन में उदगारों की चिंगारी, और
हमने इस चिंगारी को दफनाने का काम किया है।
दिन रात करती हूँ सवाल ये स्वयं से,
क्या मैंने बहुत अच्छा काम किया है?
मिला न उत्तर मुझे मेरे ही प्रश्न का,
आखिर क्यों अपनी वाणी को ही विराम दिया है।
बन गई है अब तो यह आदत अपनी,
इस आदत को सींचने का काम तो मैंने खुद ही किया है।
रिश्तों को सहेजने की खातिर,
खामोशी को भी इम्तिहान दिया है।
सरिता सेठी
