– सरिता सेठी
याद है मुझे मेरे बचपन का घर,
सयुंक्त परिवार वाला,लोगो से भरा घर,
चारो तरफ शोर मचाने वाला वह घर,
शांति से न बैठ कर, केवल हल्ला-गुल्ला मचाता वह घर,
आंगन में बिछी दादी की खटिया वाला घर,
याद है वो घर का एक एक कोना,
बचपन की सारी यादें उसमें संजोना,
सभी भाई बहनों का लङना और फिर एक हो जाना,
पङोसियों के घर जाकर टी वी कार्यक्रम देखना,
आना फिर अपने घर पर ब्लैक एंड व्हाइट टी वी का,
कितना अच्छा लगा वो सपने साकार होने सा,
सभी का मिलकर कार्यक्रमों को देखना,
फिल्म के मध्यांतर में जल्दी जल्दी काम को समेटना,
घर की सारी खटिया, कुर्सी और चटाई बिछाकर,
पूरे परिवार के साथ वी सी आर पर फिल्में देखना,
कितना मज़ा था उन छोटी छोटी खुशियों का,
गर्मी की छुट्टियों में लूडो कैरम खेलने का,
आँगन में चारपाई से लिया नेट का काम,
खूब खेला बैडमिंटन और खेल तमाम,
मम्मी के हाथ के सिले कपङे पहनकर इतराना,
सभी भाई बहनों के लिए एक ही थान का कपङा आना,
समय बदला, बीता बचपन, बदले हालात,
सब दूर हो गए, कोई न रहता था साथ,
फिर तो न त्यौहार का मज़ा न ज़िन्दगी का,
सभी अपने अपने जीवन में हो गए मस्त,
केवल अपनी जरूरतें पूरी करने में हो गए व्यस्त,
जीवन में सब कुछ मिला घर और परिवार,
लेकिन बचपन के उस घर का न छूटा प्यार,
आज भी याद है वहां बिताया एक एक पल,
वो मम्मी के हाथ की रोटी और गिन गिन कर खाया फ़ल,
बहुत खूबसूरत है वो यादों में संजोया घर
याद है मुझे वो मेरे बचपन का घर।
